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Showing posts from July, 2018

संदेसो दैवकी सों कहियौ

संदेसो दैवकी सों कहियौ। `हौं तौ धाय तिहारे सुत की, मया करति नित रहियौ॥ जदपि टेव जानति तुम उनकी, तऊ मोहिं कहि आवे। प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हहिं माखन-रोटी भावै॥ तेल उबटनों अरु तातो जल देखत हीं भजि जाते। जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करिकैं न्हाते॥ सुर, पथिक सुनि, मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच। मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत संकोच॥  - सूरदास 

फिर फिर कहा सिखावत बात

फिर फिर कहा सिखावत बात। प्रात काल उठि देखत ऊधो, घर घर माखन खात॥ जाकी बात कहत हौ हम सों, सो है हम तैं दूरि। इहं हैं निकट जसोदानन्दन प्रान-सजीवनि भूरि॥ बालक संग लियें दधि चोरत, खात खवावत डोलत। सूर, सीस नीचैं कत नावत, अब नहिं बोलत॥ - सूरदास

खेलत नंद-आंगन गोविन्द

खेलत नंद-आंगन गोविन्द। निरखि निरखि जसुमति सुख पावति बदन मनोहर चंद॥ कटि किंकिनी, कंठमनि की द्युति, लट मुकुता भरि माल। परम सुदेस कंठ के हरि नख, बिच बिच बज्र प्रवाल॥ करनि पहुंचियां, पग पैजनिया, रज-रंजित पटपीत। घुटुरनि चलत अजिर में बिहरत मुखमंडित नवनीत॥ सूर विचित्र कान्ह की बानिक, कहति नहीं बनि आवै। बालदसा अवलोकि सकल मुनि जोग बिरति बिसरावै॥ - सूरदास

रे मन, राम सों करि हेत

रे मन, राम सों करि हेत। हरिभजन की बारि करिलै, उबरै तेरो खेत॥ मन सुवा, तन पींजरा, तिहि मांझ राखौ चेत। काल फिरत बिलार तनु धरि, अब धरी तिहिं लेत॥ सकल विषय-विकार तजि तू उतरि सागर-सेत। सूर, भजु गोविन्द-गुन तू गुर बताये देत॥ - सूरदास

ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै

ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै। सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै॥ कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं। भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं॥ निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे। पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे॥ लीन्हें छोरि चीर तें चाउर कर गहि मुख में मेले। पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले॥  - सूरदास

ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी

ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी। सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥ उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥ सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥ मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥ सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥ - सूरदास 

सरन गये को को न उबार्‌यो

सरन गये को को न उबार्‌यौ। जब जब भीर परीं संतति पै, चक्र सुदरसन तहां संभार्‌यौ। महाप्रसाद भयौ अंबरीष कों, दुरवासा को क्रोध निवार्‌यो॥ ग्वालिन हैत धर्‌यौ गोवर्धन, प्रगट इन्द्र कौ गर्व प्रहार्‌यौ॥ कृपा करी प्रहलाद भक्त पै, खम्भ फारि हिरनाकुस मार्‌यौ। नरहरि रूप धर्‌यौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि बिदार्‌यौ। ग्राह-ग्रसित गज कों जल बूड़त, नाम लेत वाकौ दु:ख टार्‌यौ॥ सूर स्याम बिनु और करै को, रंगभूमि में कंस पछार्‌यौ॥  - सूरदास

व्रजमंडल आनंद भयो

व्रजमंडल आनंद भयो प्रगटे श्री मोहन लाल। ब्रज सुंदरि चलि भेंट लें हाथन कंचन थार॥ जाय जुरि नंदराय के बंदनवार बंधाय। कुंकुम के दिये साथीये सो हरि मंगल गाय॥ कान्ह कुंवर देखन चले हरखित होत अपार। देख देख व्रज सुंदर अपनों तन मन वार॥ जसुमति लेत बुलाय के अंबर दिये पहराय। आभूषण बहु भांति के दिये सबन मनभाय॥ दे आशीष घर को चली, चिरजियो कुंवर कन्हाई। सूर श्याम विनती करी, नंदराय मन भाय॥ - सूरदास 

रानी तेरो चिरजीयो गोपाल

रानी तेरो चिरजीयो गोपाल । बेगिबडो बढि होय विरध लट, महरि मनोहर बाल॥ उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल। सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उरसाल॥ सूर कितो जिय सुख पावत हैं, निरखत श्याम तमाल। रज आरज लागो मेरी अंखियन, रोग दोष जंजाल॥ - सूरदास  

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज़ की पंछी, फिरि जहाज़ पै आवै॥ कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै। परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥ जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै। 'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥ - सूरदास

कहां लौं बरनौं सुंदरताई

कहां लौं बरनौं सुंदरताई। खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥ कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई। मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढ़ाई॥ अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई। मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥ नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई। सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥ दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई। किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥ खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई। घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥ - सूरदास  

सोइ रसना जो हरिगुन गावै

सोइ रसना जो हरिगुन गावै। नैननि की छवि यहै चतुरता जो मुकुंद मकरंद हिं धावै॥ निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण बिना जिहिं और न भावै। स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस प्यावै॥ कर तैई जै स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि बृन्दावन जावै। सूरदास, जै यै बलि ताको, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥ - सूरदास

तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान

तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान। छूटि गये कैसे जन जीवै, ज्यौं प्रानी बिनु प्रान॥ जैसे नाद-मगन बन सारंग, बधै बधिक तनु बान। ज्यौं चितवै ससि ओर चकोरी, देखत हीं सुख मान॥ जैसे कमल होत परिफुल्लत, देखत प्रियतम भान। दूरदास, प्रभु हरिगुन त्योंही सुनियत नितप्रति कान॥ - सूरदास

बदन मनोहर गात

बदन मनोहर गात सखी री कौन तुम्हारे जात। राजिव नैन धनुष कर लीन्हे बदन मनोहर गात॥ लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं अंग अंग मुसकात। अति मृदु चरन पंथ बन बिहरत सुनियत अद्भुत बात॥ सुंदर तन सुकुमार दोउ जन सूर किरिन कुम्हलात। देखि मनोहर तीनौं मूरति त्रिबिध ताप तन जात॥ - सूरदास

निरगुन कौन देश कौ बासी

निरगुन कौन देश कौ बासी। मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥ को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी। कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥ पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी। सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥ - सूरदास 

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै। यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥ यह जापै लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै। दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥ मूरी के पातन के केना को मुकताहल दैहै। सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥ - सूरदास 

जसुमति दौरि लिये हरि कनियां

जसुमति दौरि लिये हरि कनियां। आजु गयौ मेरौ गाय चरावन, हौं बलि जाउं निछनियां॥ मो कारन कचू आन्यौ नाहीं बन फल तोरि नन्हैया। तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ,मेरे कुंवर कन्हैया॥ कछुक खाहु जो भावै मोहन. दैरी माखन रोटी। सूरदास, प्रभु जीवहु जुग-जुग हरि-हलधर की जोटी॥ - सूरदास