*#महिलाओं को पति की आवश्यकता क्यों है?* एक महिला एक मनोचिकित्सक के पास जाती है और शिकायत करती है:- “मैं शादी नहीं करना चाहती। मैं शिक्षित, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर हूं। मुझे पति की जरूरत नहीं है। लेकिन मेरे माता-पिता मुझसे शादी करने के लिए कह रहे हैं। मैं क्या करूं?" मनोचिकित्सक ने उत्तर दिया: “तुम, निस्संदेह जीवन में बहुत कुछ हासिल करोगे। लेकिन किसी दिन अनिवार्य रूप से जिस तरह से आप चाहते हैं वैसे नहीं हो पायेगा । कुछ कुछ गलत हो जाएगा। कभी-कभी आप असफल होंगे। कभी-कभी आपकी योजनाएं काम नहीं करेंगी। कभी-कभी आपकी इच्छाएं पूरी नहीं होंगी। फिर किसे दोष दोगे? क्या आप खुद को दोषी मानेंगे? ” महिला: "नहीं !!!" मनोचिकित्सक: "हाँ ... इसलिए आपको एक पति की आवश्यकता है, ताकि सारा दोष उन्हें दे सके।" फिर वो खुशी खुशी मान गई...😆😁😃😜🤣🤩🤩🤩🤩
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मीठा जल
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एक शिष्य अपने गुरु से सप्ताह भर की छुट्टी लेकर अपने गांव जा रहा था। तब गांव पैदल ही जाना पड़ता था। जाते समय रास्ते में उसे एक कुआं दिखाई दिया। शिष्य प्यासा था, इसलिए उसने कुएं से पानी निकाला और अपना गला तर किया। शिष्य को अद्भुत तृप्ति मिली, क्योंकि कुएं का जल बेहद मीठा और ठंडा था। शिष्य ने सोचा - क्यों ना यहां का जल गुरुजी के लिए भी ले चलूं। उसने अपनी मशक भरी और वापस आश्रम की ओर चल पड़ा। वह आश्रम पहुंचा और गुरुजी को सारी बात बताई। गुरुजी ने शिष्य से मशक लेकर जल पिया और संतुष्टि महसूस की। उन्होंने शिष्य से कहा- वाकई जल तो गंगाजल के समान है। शिष्य को खुशी हुई। गुरुजी से इस तरह की प्रशंसा सुनकर शिष्य आज्ञा लेकर अपने गांव चला गया। कुछ ही देर में आश्रम में रहने वाला एक दूसरा शिष्य गुरुजी के पास पहुंचा और उसने भी वह जल पीने की इच्छा जताई। गुरुजी ने मशक शिष्य को दी। शिष्य ने जैसे ही घूंट भरा, उसने पानी बाहर कुल्ला कर दिया शिष्य बोला- गुरुजी इस पानी में तो कड़वापन है और न ही यह जल शीतल है। आपने बेकार ही उस शिष्य की इतनी प्रशंसा की। गुरुजी बोले- बेटा, मिठास और शीतलता इस जल में नहीं है
जो हवा में है
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जो हवा में है, लहर में है क्यों नहीं वह बात मुझमें है? शाम कंधों पर लिए अपने ज़िन्दगी के रू-ब-रू चलना रोशनी का हमसफ़र होना उम्र की कन्दील का जलना आग जो जलते सफ़र में है क्यों नहीं वह बात मुझमें है? रोज़ सूरज की तरह उगना शिखर पर चढ़ना, उतर जाना घाटियों में रंग भर जाना फिर सुरंगों से गुज़र जाना जो हंसी कच्ची उमर में है क्यों नहीं वह बात मुझमें है? एक नन्हीं जान चिड़िया का डाल से उड़कर हवा होना सात रंगों के लिये दुनिया वापसी में नींद भर सोना जो खुला आकाश स्वर में है क्यों नहीं वह बात मुझमें है? - उमाशंकर तिवारी
मधुशाला
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मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३। भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४। मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५। मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला, 'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग
संदेसो दैवकी सों कहियौ
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संदेसो दैवकी सों कहियौ। `हौं तौ धाय तिहारे सुत की, मया करति नित रहियौ॥ जदपि टेव जानति तुम उनकी, तऊ मोहिं कहि आवे। प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हहिं माखन-रोटी भावै॥ तेल उबटनों अरु तातो जल देखत हीं भजि जाते। जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करिकैं न्हाते॥ सुर, पथिक सुनि, मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच। मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत संकोच॥ - सूरदास
खेलत नंद-आंगन गोविन्द
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खेलत नंद-आंगन गोविन्द। निरखि निरखि जसुमति सुख पावति बदन मनोहर चंद॥ कटि किंकिनी, कंठमनि की द्युति, लट मुकुता भरि माल। परम सुदेस कंठ के हरि नख, बिच बिच बज्र प्रवाल॥ करनि पहुंचियां, पग पैजनिया, रज-रंजित पटपीत। घुटुरनि चलत अजिर में बिहरत मुखमंडित नवनीत॥ सूर विचित्र कान्ह की बानिक, कहति नहीं बनि आवै। बालदसा अवलोकि सकल मुनि जोग बिरति बिसरावै॥ - सूरदास